Friday, April 20, 2012

रिक्शावाला

Guest Post by Lalit Surjan-


‎'मैं रिक्शावाला, मैं रिक्शावाला 
है चार के बराबर, ये दो टांगवाला 
कहां चलोगे बाबू, कहां चलोगे लाला''
सन् 1956 में बनी फिल्म 'छोटी बहन' में हास्य अभिनेता महमूद पर यह गाना फिल्माया गया था, जो जाहिर है कि एक रिक्शेवाले की भूमिका निभा रहे थे। यह वही फिल्म है, जिसका एक और गाना ''भैय्या मेरे राखी के बंधन को निभाना'' आज तक लोकप्रिय बना हुआ है। 


प्रिय पाठक, भारत में ऐसा शायद ही कोई व्यक्ति होगा, जिसने रिक्शे की सवारी न की हो। और तो और प्रियंका गांधी भी अपने बच्चों के साथ रायबरेली, अमेठी में चुनाव के दिनों में रिक्शे पर घूमती दिखाई दे जाती हैं। लेकिन एक रिक्शा चालक का जीवन कैसे बीतता है उस पर शायद ही कभी हमारा ध्यान जाता हो। अगर कोई सर्वेक्षण करवाया जाए तो रिक्शा चालकों के बारे में सवारियों की राय कुछ बहुत अच्छी नहीं होगी। हम रिक्शे में बैठने के पहले चालक से बड़ी देर तक भाव-ताव करते हैं। यदि बिना रेट तय किए बैठ गए तो उतरने के बाद उसके साथ हुज्जत करते हैं। हमें अक्सर लगता है कि रिक्शावाला लूट रहा है। सचमुच हमारे लिए लूट की परिभाषा कितनी छोटी है! रिक्शेवाला बरसात में पानी में भीगते हुए रिक्शा चलाता है, गर्मियों में सड़क के पिघले कोलतार के कारण पहिया खींचना मुश्किल होता है, ठंड में ठिठुरन से बचने के लिए उसके पास शायद ही कभी पर्याप्त साधन होता हो, यह सब जानते हुए भी रिक्शा चालक से हमारी शिकायत बनी ही रहती है। तथापि मुझे इस बात का संतोष है कि हमारी भाषा में ऐसे लेखक हैं जिन्होंने अपनी संवेदना के तार रिक्शेवालों के साथ जोड़े हैं।


सुधा अमृत राय ने अपने माता-पिता की जीवनी ''मिला तेज से तेज'' में बयान किया है कि लक्ष्मण सिंह चौहान सिध्दांतत: रिक्शे में बैठते ही नहीं थे कि मनुष्य मनुष्य को क्यों ढोए। लेकिन सुभद्रा कुमारी चौहान रिक्शेवाले को हमेशा दुगुने पैसे देती थीं कि उसका शोषण न हो। भिलाई में हमारे लेखक मित्र स्व. कनोजकांति दत्ता ने गहरी सहानुभूति के साथ ''रिक्शावाला'' शीर्षक कहानी लिखी थी। भिलाई के ही दूसरे साथी लोकबाबू ने भी अपनी कुछ कहानियों में सघन आत्मीयता के साथ उनका चित्रण किया है और दिल्ली निवासी युवा कथाकार सुशांत सुप्रिय ने भी।


आज रिक्शेवालों की बात इसलिए उठी कि अभी थोड़े दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय ने उनके पक्ष में एक बढ़िया फैसला सुनाया है। इसकी खबर ''देशबन्धु'' के अलावा और कहां छपी, मुझे मालूम नहीं। संपूर्ण घटना ऐसी है कि दिल्ली नगर निगम ने दिल्ली में रिक्शा चालन पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया। वे इसके खिलाफ दिल्ली उच्च न्यायालय में गए जिसने नगर निगम का निर्णय रद्द कर दिया गया। इस पर नगर निगम ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की, लेकिन वहां भी उसे हार का मुंह देखना पड़ा। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि वह निन्यानबे हजार रिक्शे वालों को उनके जीवनयापन के अधिकार से वंचित नहीं कर सकता। बहुत से चर्चित फैसलों के बीच यह फैसला खो भले ही गया हो, लेकिन यह सचमुच एक बड़ा फैसला है। 


मुझे ध्यान आता है कि मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने मध्यप्रदेश में रिक्शा चालकों को उनके रिक्शे पर मालिकाना हक देने का निर्णय लिया था। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उस भावना को आगे बढ़ाता है और समाज को अपने बीच के एक मेहनतकश समुदाय के बारे में पली भ्रांत धारणाओं को बदलने का अवसर भी देता है। आज जब देश में तेजी के साथ शहरीकरण हो रहा है, खेती की जमीन पर कारखाने लग रहे हैं और छोटे किसान मजदूर बनने के लिए विवश हो रहे हैं तब इस बारे में सोचना पहले से कहीं ज्यादा आवश्यक हो गया है। यह कौन नहीं जानता कि अधिकतर रिक्शे-वाले गांवों से इसीलिए आते हैं कि वहां उनके लिए रोजगार के अवसर नहीं हैं। शहर आकर वे रिक्शा इसलिए चलाते हैं कि वही सबसे सुलभ रोजगार होता है। 


उनके लिए कोई कानून नहीं होता बल्कि वे बिना बात पुलिस की गालियों और पिटाई का शिकार होते हैं। पैडल मारते-मारते उनके पैरों की नसें गुत्थी हो जाती हैं और वे आठ-दस साल में ही वेरीकोज वेन, टीबी और अस्थमा जैसे रोगों के शिकार हो जाते हैं। अपने श्रम का परिहार करने के लिए वे शराब पीते हैं और फिर शराबी होने के नाम पर अलग गाली खाते हैं। इसके बावजूद उनके बिना हमारा काम नहीं चलता। आज भी हर शहर में हजारों बच्चों को स्कूल लाने ले जाने का काम वे ही करते हैं। अपने बच्चों से पूछिए तो उनके पास अपने रिक्शे वाले काका या भैय्या के बारे में कुछ मीठे संस्मरण ही होंगे। मेरी बेटियां कला नामक उस रिक्शा चालक को आज भी याद करती हैं जो बचपन में उनको नर्सरी स्कूल ले जाता था, और वे जब लौटते में सो जाती थीं तो अपना गमछा सीट के आर-पार बांध देता था ताकि वे गिर न जाएं। रायपुर के बैरनबाजार कुंदरापारा में रहने वाले हजारी, जगसीता आदि रिक्शेवाले मेरे दोस्त बन गए थे जिनका ध्यान मुझे अनायास यहां हो आया।


मैं विषय पर वापिस लौटूं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर मद्देनार सोचना चाहिए कि रिक्शा चालकों के जीवन-यापन और उनके काम के बारे में क्या सुधार लाए जा सकते हैं। 1970 के आसपास नागपुर में बैटरी चालक रिक्शे सड़कों पर देखे जा सकते थे। आधा हॉर्स पावर बैटरी वाले इस रिक्शे की रफ्तार तीस किलोमीटर प्रति घंटा होती थी और चालक को इससे काफी आराम मिल जाता था। मैं नहीं जानता कि ये रिक्शे क्यों बंद कर दिए गए। आटो रिक्शा के मुकाबले ये ज्यादा सुरक्षित भी थे और इनमें प्रदूषण का सवाल ही नहीं था। गांधी जी के पांचवें पुत्र जमनालाल बजाज के बेटे रामकृष्ण बजाज यदि ''हमारा बजाज'' बनाने की बजाय ये रिक्शे बनाते तो अपने व्यापार में बिना नुकसान किए वे खादी आंदोलन की भावना से देश का भला भी कर सकते थे। 


आज जब शहरों पर यातायात का बोझ लगातार बढ़ रहा है, शहरी आबादी जहां प्रदूषण से परेशान हैं और जहां हर पल सड़क दुर्घटनाएं हो रही हैं, वहां बैटरी चालित रिक्शा एक उत्तम विकल्प के रूप में हमारे सामने मौजूद है। जिस तरह दिल्ली में डीजल बसों को सीएनजी से प्रतिस्थापित किया गया, उसी तरह इस बारे में भी सोचना चाहिए। आज बड़े शहरों में दिल्ली मैट्रो की सफलता के बाद मैट्रो स्थापित करने की होड़ लग गई है। निश्चित रूप से यह सार्वजनिक यातायात का बेहतर माध्यम है, लेकिन अच्छा होगा कि इसके साथ सिटी बस सेवाओं को मजबूत करने और ट्राम सेवाओं को प्रारंभ करने पर भी विचार किया जाए। ये दोनों साधन स्थापना और संचालन दोनों लिहाज से मेट्रो के मुकाबले किफायती हैं। इसके साथ-साथ निजी वाहन के प्रति बढ़ते मोह को कैसे रोका जाए, इस प्रश्न पर भी गौर करना जरूरी है। जरा सोचिए कि रेल, बस, ट्राम, रिक्शा ये सब मिलकर किस तरह मनुष्य के एक सामाजिक प्राणी होने के भाव को पुष्ट करते हैं, जबकि निजी वाहन हमें सिर्फ प्राणी, वह भी अक्सर हिंसक व आक्रामक, बनाकर छोड़ देते हैं। 


Author Lalit Surjan is Chief Editor of Hindi Daily "Desh Bandhu" published from Raipur, M.P. His contact:- lalitsurjan@gmail.com


After reading the plights of Rikshapullers,how about reading a satire on autocracies of Autowallas in Bangalore? Read the previous post-
http://srayyangar.blogspot.in/2012/03/bengaluru-auto-services.html

6 comments:

  1. A well written post on Rikshawallas....Whenever I went to my home town(Saharanpur-UP)I always prefer rikshapuller.....and I always see that the most of the ladies spend thousands of rupees in one shop but when it come to these poor people they negotiate for Re 1 or 2.....really a wonderful post.

    ReplyDelete
  2. Shriram Sir, thank you for sharing. We have seen auto Rikshas only, so I never knew about their plight, the battery Riksha seems good option. People should know their pain. Thanks Lalit Surjanji.

    ReplyDelete
  3. Hi ,this is my first visit here & i shall follow it with many more(time is the only constraint).
    Your post is full of empathy for an overlooked portion of our society---thanks for bringing them to light....& the last para contains valuable suggestions.

    ReplyDelete
  4. Sorry i didn't mention that the author is Lalit Surjan-i like this post as well as this blog.

    ReplyDelete
  5. Thanks for great post Sir Most of the Rikshawallas spent their life in this way that you have shown in this post.
    Corruption India

    ReplyDelete
  6. thank you sir, for sharing your view with us. this content is really helpful for my research paper.

    ReplyDelete